माही (Mahi)

गंभीर, गहरी सोंच में व्यथित,

कान्हा पीपर की छाँव में स्तिथ,

माही दबे पाँव, अपनी पायल थाम,

खेतों से निहारे, हृदय थाम।


माही की व्यथा, माही जाने

राधा से ईर्ष्या, अपनी आस जाने,

कैसे बताऊँ, कैसे जताऊँ,

कान्हा, मैं तुम्हें कैसे पाऊँ।


राधा ना आयी, सखियाँ ना आयीं,

क्या मैंने, कोई पीड़ा पहुँचाई,

नादिया में बाढ़, तो ना आयी,

वरना बिना चूके, माही कैसे आयी।


चुप चाप पिहारती, और संकुचाती,

पीपर पे बैढे, मीत की सखी,

कान्हा है सब जाने, यह ना जाने,

अगले जीवन में,

होगी तू ही कान्हा की सखी।।


  • Shukla | 2021